रविवार, दिसम्बर 22, 2024
रविवार, दिसम्बर 22, 2024

HomeFact SheetsBabri Demolition Case: क्या था राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद?

Babri Demolition Case: क्या था राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद?

Authors

Believing in the notion of 'live and let live’, Preeti feels it's important to counter and check misinformation and prevent people from falling for propaganda, hoaxes, and fake information. She holds a Master’s degree in Mass Communication from Guru Jambeshawar University and has been a journalist & producer for 10 years.

राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद की नीव उसी दिन पड़ गई थी जब 1949 की एक रात मस्जिद के अंदर भगवान राम लल्ला की मूर्ति अवतरित हो गई। हालांकि बाबरी मस्जिद की कहानी इससे कई साल पुरानी है और उस पर किया जाता रहा आधिपत्य भी। कहते हैं मस्जिद को 1528 में बाबर के आदेश पर बनवाया गया, जिसे बनाने की ज़िम्मेदारी मीर बाक़ी को सौंपी गई थी। मस्जिद पर मौजूद अभिलेख भी यही कहते हैं। कहा तो ये भी जाता है कि बाबर ने बाबरी मस्जिद बनवाई नहीं थी बल्कि उसका नवीकरण किया था। वहीं हिंदुओं का कहना था कि ये मस्जिद उस जगह पर बनाई गई है जहां न सिर्फ राम मंदिर था बल्कि भगवान राम का जन्म भी हुआ था। मस्जिद को लेकर किया गया दावा केवल हिंदू-मुस्लिम के बीच नहीं था बल्कि शिया और सुन्नी मुसलमान भी इसे लेकर आमने-सामने थे।

बहरहाल, 9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की संवैधानिक बेंच ने अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया। फैसला राम लल्ला के पक्ष में रहा और विवादित भूमि पर राम मंदिर बनाने की इजाज़त दे दी गई। आज 28 साल बाद फैसला सुनाते हुए लखनऊ के स्पेशल सीबीआई कोर्ट ने आडवाणी, जोशी, उमा, कल्याण, नृत्यगोपाल दास सहित 32 आरोपियों को बरी कर दिया है।

आइए जानते हैं क्या था यह विवाद:

क्या है राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद?

इस पूरे विवाद को अच्छे से समझने के लिए हमें कई वर्ष पीछे जाना होगा जब विवादित भूमि को लेकर पहली अपील दाखिल की गई थी।

1885 में दायर हुआ था पहला मुकदमा

नवाब वाजिद अली शाह

ज़मीन को लेकर पहला विवाद साल 1853 में हुआ जब अवध पर नवाब वाजिद अली शाह का शासन था। निर्मोही नामक समुदाय ने उस समय दावा किया कि जिस जगह पर बाबरी मस्जिद है वहां मंदिर हुआ करता था। इसके बाद इस ज़मीन को लेकर दोनों समुदायों के बीच हिंसक झड़पें हुईं। साल 1857 तक यहां हिंदू-मुस्लिम दोनों ही पूजा और नमाज़ अता किया करते थे। लेकिन 1859 में विद्रोह के बाद अंग्रेज़ों ने इस जगह को तार-बाड़ के जरिए दोनों समुदायों के लिए अलग-अलग कर दिया। 

सर्वपल्ली गोपाल की किताब Anatomy of a Confrontation: Ayodhya and the Rise of Communal Politics in India के मुताबिक 1855 में जो विवाद हुआ दरअसल वह बाबरी मस्जिद को लेकर नहीं बल्कि हनुमानगढ़ी मंदिर को लेकर हुआ था। मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों ने दावा किया कि ये मंदिर, मस्जिद को तोड़कर बनाया गया है। इसके बाद मंदिर पर कब्ज़ा करने की कोशिश की गई। मंदिर में घुसपैठ करने वालों को मार-पीट कर भगा दिया गया। जान बचा कर भागे घुसपैठियों का बाबरी मस्जिद तक पीछा किया गया।

विवाद को सुलझाने के लिए अवध के नवाब वाजिद अली शाह द्वारा एक कमेटी बनाई गई जिसने ये माना कि हनुमानगढ़ी मंदिर किसी मस्जिद को तोड़कर नहीं बनाया गया है। हालांकि मुस्लिमों को शांत करने के लिए मंदिर के साथ एक मस्जिद बनाने का सुझाव दिया गया। 

विद्रोह के बाद साल 1857 में हनुमानगढ़ी के महंत ने बाबरी मस्जिद के पास एक चबूतरे का निर्माण किया। इसकी शिकायत के बाद 1861 में ब्रिटिश अधिकारियों ने चबूतरे को मस्जिद से अलग कर दोनों के बीच एक दीवार खड़ी कर दी। साल 1883 में महंत रधुबर दास ने चबूतरे पर मंदिर बनाने का काम शुरू किया। लेकिन मुस्लिम समुदाय द्वारा आपत्ति जताए जाने के बाद मजिस्ट्रेट ने मंदिर निर्माण को रुकवा दिया। निर्माण रुकने से गुस्साए रघुबर दास ने 1885 में कोर्ट में केस फाइल करते हुए कहा कि चबूतरे का मालिक होने के नाते उन्हें वहां कुछ भी बनाने का अधिकार है। 

रघुबर दास की अपील को उप न्यायाधीश ने ये कहकर खारिज कर दिया कि चबूतरे पर मंदिर बनने के बाद दोनों समुदायों के बीच मतभेद बढ़ सकता है जिससे जान-माल को ख़तरा हो सकता है। इस फैसले के बाद रघुबर दास ये मामला जिला न्यायाधीश के पास लेकर गए। जिला अदालत ने उप न्यायाधीश के फैसले को सही ठहराया और चबूतरे पर रघुबर दास और हिंदुओं के अधिकार को भी खारिज कर दिया। लेकिन रघुबर दास ने हार नहीं मानी, उन्होंने अवध के न्यायिक आयुक्त की अदालत में अपील करते हुए न सिर्फ मंदिर निर्माण की अनुमति मांगी बल्कि जिला न्यायाधीश के उस फैसले को भी रद्द करने की अपील की जिसमें उनसे चबूतरे का स्वामित्व छीन लिया गया था।

न्यायिक आयुक्त ने मामले की सुनवाई करते हुए नवंबर साल 1886 में कहा कि हिंदू उस पवित्र स्थान, जहां भगवान रामचंद्र का जन्म हुआ था, पर एक मंदिर बनाना चाहते हैं। लेकिन ये जगह 350 साल पहले बाबर द्वारा बनवाई गई मस्जिद प्रांगण के अंदर है। आयुक्त ने कहा कि हिंदू धीरे-धीरे ज़मीन पर अपना अधिकार बढ़ाते जा रहे हैं और यहां दो इमारतें बनाना चाहते हैं; सीता की रसोई और राम जन्मभूमि। साथ ही उन्होंने कार्यकारी अधिकारियों के विवादित भूमि पर कुछ भी न बनाने के फैसले को सही ठहराया और जिला न्यायाधीश के फैसले को बरकरार रखा। साल 1934 में एक बार फिर अयोध्या में हंगामा हुआ जब गौ-हत्या से गुस्साए हिंदुओं ने बाबरी मस्जिद में तोड़-फोड़ की। बाद में ब्रिटिश अधिकारियों ने उसकी मरम्मत करवाई। 1946 में बाबरी मस्जिद को सुन्नी समुदाय को सौंप दिया गया। 

जब रातों-रात अवतरित हुई राम लल्ला की मूर्ति

आज़ादी के बाद उत्तर-प्रदेश की राजनीति उतार-चढ़ाव से गुज़र रही थी। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ने सत्ता में काबिज़ कांग्रेस सरकार को हिलाकर रख दिया था। साल 1948 के उप-चुनाव इस बात के गवाह हैं। कांग्रेस से अलग हुए विधायक आचार्य नरेंद्र देव ने फिर से चुनाव लड़ने का फैसला किया और फैज़ाबाद से चुनावी बिगुल बजाया। तत्कालीन मुख्यमंत्री जी बी पंत ने उप चुनाव में देव के सामने बाबा राघव दास को उतारा और यह प्रचार करवाया कि आचार्य नरेंद्र देव भगवान राम को नहीं मानते। नतीजतन राघव दास चुनाव जीत गए। 

कृष्णा झा की किताब Ayodhya: The dark night में उपचुनावों के जिक्र के साथ-साथ ये भी खुलासा किया गया है कि बाबरी मस्जिद के अंदर राम लल्ला की मूर्ति रखने का सुझाव तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट केके नायर ने दिया था। जिसके 20 दिन बाद 22 दिसंबर 1949 को ही मस्जिद में मूर्तियां रख दी गईं।

के.के नायर

अगली सुबह जब हालात काबू से बाहर होते दिखे तो नायर ने नगरपालिका के चेयरमैन प्रियादत्त राम से मामले में हस्तक्षेप करने की अपील की। नायर ने उत्तर-प्रदेश के सचिव को पत्र लिखकर ये सुझाव दिया कि मस्जिद से मूर्तियों को न हटाया जाए, ऐसा करने से दंगे भड़क सकते हैं।

29 दिसंबर 1949 को मजिस्ट्रेट मार्काण्डये सिंह ने बाबरी मस्जिद को अटैच कर प्रियादत्त राम को इसका ज़िम्मा सौंप दिया।

कोर्ट से मांगी गई राम लल्ला के पूजन की अनुमति

गोपाल विशारद, सौजन्य: WSJ

राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में दूसरा मुकदमा गोपाल सिंह विशारद ने दाखिल किया। फैज़ाबाद कोर्ट में दायर किए गए इस मुक़द्दमे के जरिए विशारद ने मस्जिद में मौजूद राम लल्ला की पूजा करने की अनुमति मांगी साथ ही आग्रह किया कि मस्जिद से मूर्तियां न हटाने को लेकर आदेश पारित किया जाए। मामले पर कोर्ट ने अंतरिम आदेश देते हुए मस्जिद से मूर्तियां न हटाने का आदेश जारी किया। विशारद को मिली अनुमति के बाद इसी साल रामचंद्र दास परमहंस ने भी मुकदमा दायर कर राम लल्ला की पूजा-अर्चना की अनुमति मांगी।

निर्मोही अखाड़ा ने किया राम जन्मभूमि पर दावा

महंत भास्कर दास

तीसरा मुकदमा निर्मोही अख़ाड़ा, महंत भास्कर दास और रघुनाथ दास की तरफ से दायर किया गया जिसमें मांग की गई कि राम जन्मभूमि का प्रबंधन उनको सौंपा जाए।

सुन्नी वक़्फ बोर्ड भी पहुंचा अदालत

1961 में सुन्नी वक़्फ बोर्ड की तरफ से भी एक मुकदमा दर्ज कराया गया जिसमें मांग की गई कि बाबरी मस्जिद को सार्वजनिक मस्जिद घोषित किया जाए और वहां से राम लल्ला और अन्य मूर्तियां हटाई जाएं। 1964 में इन चारों मुक़द्दमों को एक किया गया और सुन्नी वक़्फ बोर्ड के मुक़द्दमे को प्रमुख माना गया। 

जब अदालत ने दी ताले खोलने की इजाज़त

ये मुकदमा लगभग 20 साल तक लंबित रहा और तब एक बार फिर चर्चा में आया जब 1986 में न्यायाधीश हरि शंकर दुबे ने उमेश चंद्र पांडेय की उस याचिका को खारिज कर दिया जिसमें बाबरी मस्जिद के ताले खोले जाने की अपील की गई थी। पांडेय ने याचिका इसलिए डाली थी क्योंकि हिंदुओं को ताला होने की वजह से राम लल्ला के दर्शन करने और पूजा अर्चना में दिक्कतें आती थी। उमेश पांडेय ने इस फैसले के खिलाफ जिला अदालत में अपील की जहां बाबरी मस्जिद के दरवाज़ों से ताले हटवा दिए गए, ये कहकर कि ऐसा करना किसी को प्रभावित नहीं करेगा।

एक दलित ने रखा राम मंदिर की नींव का पहला पत्थर

लोकसभा चुनाव नज़दीक थे, कांग्रेस हिंदुओं के वोट हाथ से जाने नहीं देना चाहती थी ऐसे में प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सहमति से मस्जिद के दरवाज़े पूजा-अर्चना के लिए खुलवा दिए गए थे। दरवाज़े न सिर्फ खुलवाए गए बल्कि हिंदू संगठनों को यहां शिलान्यास की इजाज़त भी दे दी गई। देश के अलग-अलग कोने से राम मंदिर के लिए ईंटे अयोध्या लाई जाने लगी। 

9 नवंबर 1989 को एक दलित कामेश्वर चौपाल द्वारा मंदिर की पहली ईंट रखी गई। भाजपा ने कांग्रेस से एक कदम आगे बढ़ाते हुए विश्व हिंदू परिषद के राम मंदिर आंदोलन को समर्थन दे दिया और राम मंदिर बनाने का संकल्प ले लिया। कांग्रेस चुनाव हार गई और भाजपा के समर्थन से जनता दल सत्ता पर काबिज़ हो गई। 

इस बीच अयोध्या विवाद में एक और मुकदमा दायर किया गया। ये मुकदमा भगवान श्री राम विराजमान की तरफ से देवकी नंदन अग्रवाल द्वारा किया गया जिसमें मांग की गई कि अयोध्या स्थित राम जन्मभूमि पर केवल देवी देवताओं का ही अधिकार है तथा यहां मंदिर बनाने में किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। उधर 1987 में यूपी सरकार द्वारा दायर की गई याचिका पर फैसला देते हुए 1989 में ही अयोध्या मामले से जुड़े सभी मुक़द्दमों को इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच भेज दिया गया।

सोमनाथ से अयोध्या तक निकाली गई रथयात्रा

1990 में लाल कृष्ण आडवाणी की अगुवाई में सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा का आयोजन किया गया। जैसे-जैसे रथयात्रा आगे बढ़ती रही, देश के कई इलाके दंगे की आग में जलते रहे। बिहार पहुंचते ही आडवाणी की रथयात्रा रोक दी गई और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। नाराज़ भाजपा ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और वीपी सिंह को अपना प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा। 

उधर अयोध्या में साधु-संतों की भारी भीड़ उमड़ पड़ी थी। सूबे की मुलायम सरकार सतर्क थी और साधु-संतों को आगे बढ़ने से रोक रही थी। बाबरी मस्जिद के चारों ओर सुरक्षा के पुख्ता इंतज़ाम थे। आगे बढ़ने में असमर्थ भीड़ बेकाबू हो गई हालात बिगड़ता देख पुलिस को गोलियां चलानी पड़ी। इस गोलीबारी में 5 जानें गईं और कई लोग घायल हो गए। दो दिन बाद ही गुस्साए कार-सेवक भारी तादाद में हनुमान गढ़ी जमा हो गए। कार-सेवकों का नेतृत्व कर रहे हिंदूवादी नेता उमा भारती, अशोक सिंघल हजारों की तादाद में कार-सेवकों को लेकर हनुमान गढ़ी की ओर बढ़ते जा रहे थे। गुस्साई भीड़ को रोकने के लिए एक बार फिर प्रशासन की तरफ से फ़ायरिंग की गई इस बार हजारों कार-सेवक मारे गए। हिंदू संगठनों का गुस्सा और बढ़ गया नतीजतन मुलायम सिंह यादव को सत्ता से हाथ धोना पड़ा।

बाबरी मस्जिद का विध्वंस

अयोध्या विवाद अब उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं था ये पूरे देश के लिए एक बड़ा मुद्दा बन गया था। 6 दिसंबर 1992 को RSS और उसके सहयोगी संगठनों द्वारा अयोध्या में एक रैली का आयोजन हुआ। देश के अलग-अलग राज्यों से आए लगभग 1,50,000 कार-सेवक इस रैली में शामिल हुए। लाखों की तादाद में आए इन कार सेवकों को भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती ने भी संबोधित किया। देखते ही देखते रैली में मौजूद लोग गुस्साई भीड़ में तब्दील हो गए और बाबरी मस्जिद की ओर कूच कर गए। कुछ ही घंटों में बाबरी मस्जिद जमींदोज हो गई और एक अस्थाई मंदिर का निर्माण किया गया। मस्जिद विध्वंस के बाद देश के कई कोनों में हुए दंगों में हज़ारों लोग मारे गए।

IB के पूर्व अध्यक्ष मलॉय कृष्णधर की 2005 में आई किताब में दावा किया गया है कि बाबरी मस्जिद को गिराने की तैयारी RSS ने 10 महीने पहले ही कर ली थी। धर ने किताब के जरिए तत्कालीन पी वी नरसिंहाराव सरकार की आलोचना करने के साथ ही आरोप लगाया कि RSS, भाजपा और हिंदू महासभा के नेता पहले ही हिंदुत्व का ब्लू प्रिंट तैयार कर चुके थे। धर ने ये भी आरोप लगाए कि राजनीति के लिए इस घटना को चुपचाप सहमति दे दी गई। 

2014 में कोबरा पोस्ट द्वारा किए गए स्टिंग ऑपरेशन में भी ये खुलासा हुआ था कि एक गुस्साई और भड़की हुई भीड़ ने इस ढांचे को नहीं गिराया बल्कि ये विश्व हिंदू परिषद और शिवसेना की सोची समझी साज़िश थी।

विवादित ज़मीन का केंद्र सरकार ने किया अधिग्रहण

7 जनवरी 1993 को अध्यादेश जारी कर अयोध्या की 66.7 एकड़ ज़मीन केंद्र सरकार ने अपने अधीन कर ली, जिसमें वो ज़मीन भी शामिल थी जहां बाबरी मस्जिद हुआ करती थी। अध्यादेश को बाद में बदल कर अयोध्या अधिनियम, 1993 में तब्दील कर दिया गया। इस अधिनियम के मुताबिक इलाके में अधिग्रहण से पहले की स्थिति बरक़रार रखी जाए यानि अस्थाई मंदिर में पूजा-अर्चना होती रहे। इस अधिनियम ने सभी अदालती कार्यवाहियों को भी रद्द कर दिया जो इलाहाबाद हाईकोर्ट में चल रही थीं। 

केंद्र सरकार के इस अधिनियम के खिलाफ डॉ. इस्माइल फारूकी ने एक याचिका दायर कर कहा कि सरकार को भूमि अधिग्रहण का अधिकार नहीं है। 1994 में डॉ. फारूकी की याचिका पर सुनवाई करते हुए 5 जजों की बेंच ने सरकार के भूमि अधिग्रहण को सही ठहराया और कहा कि इस्लाम में नमाज़ मस्जिद में ही पढ़ी जाए ऐसा नहीं लिखा गया है, नमाज़ कहीं भी पढ़ी जा सकती है। 

वहीं विवादित ढांचे को गिराए जाने के बाद अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति द्वारा मामला सुप्रीम कोर्ट भेजा गया और ये तय करने के लिए कहा गया कि क्या विवादित ढांचे के स्थान पर मंदिर था या नहीं। जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 1994 में ये कहकर लौटा दिया कि इस मामले में कोई भी कानूनी पेंच नहीं है। परिणामस्वरूप पिछले मुक़द्दमे फिर से खोले गए। पिछली अदालतों की ही तरह सुप्रीम कोर्ट ने भी यथास्थिति बनाए रखने का फैसला लिया यानि अस्थाई मंदिर में हिंदुओं का पूजा अर्चना करना जारी रहेगा। 

विवादित ज़मीन पर धार्मिक गतिविधियों पर लगाई गई रोक

असलम भुरे

अयोध्या की 66.7 एकड़ ज़मीन का हक़दार कौन हो, इसकी सुनवाई 2002 में हाईकोर्ट में फिर शुरू हुई। उधर 2003 में असलम उर्फ़ भूरे केस में सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने फैसला लिया कि विवादित स्थल पर किसी भी प्रकार की कोई भी धार्मिक गतिविधि नहीं होगी। साथ ही कोर्ट ने फैसला दिया कि पारित किया गया आदेश तब तक मान्य होगा जब तक हाईकोर्ट में चल रही सुनवाई पूरी न हो जाए।

लिब्रहान कमीशन रिपोर्ट

6 दिसंबर 1992 को हुए बाबरी विध्वंस की आंच पूरे देश तक इस क़दर फैली कि न जाने कितनी जाने दंगों की भेंट चढ़ गई। मामले की जांच के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव द्वारा एक कमेटी बिठाई गई जिसकी अध्यक्षता रिटायर्ड हाईकोर्ट जज एम.एस लिब्रहान को सौंपी गई।

16 साल तक चली इस जांच के बाद आई रिपोर्ट ने बाबरी विध्वंस के दौरान मुख्यमंत्री रहे कल्याण सिंह की कड़ी आलोचना की। साथ ही इस घटना के पीछे RSS का हाथ बताया। रिपोर्ट में कहा गया कि बाबरी मस्जिद ढहाने का माहौल बनाने में ‘लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती और अटल बिहारी वाजपेयी’ जैसे लोगों ने अहम भूमिका निभाई। इस रिपोर्ट ने कुछ अफ़सरों पर भी यह आरोप लगाए कि उन्होंने संविधान की शपथ के विरोध में काम किया।

आज मामले में सभी आरोपी बरी कर दिए गए हैं। स्पेशल सीबीआई कोर्ट ने कहा कि बाबरी मस्जिद विध्वंस सुनियोजित नहीं था।

Our Sources

  • Wall Street Journal
  • Frontline
  • Outlook
  • Anatomy of a Confrontation: Ayodhya and the Rise of Communal Politics in India 
  • Ayodhya: The Dark Night

(किसी संदिग्ध ख़बर की पड़ताल, संशोधन या अन्य सुझावों के लिए हमें ई-मेल करें: checkthis@newschecker.in)

Authors

Believing in the notion of 'live and let live’, Preeti feels it's important to counter and check misinformation and prevent people from falling for propaganda, hoaxes, and fake information. She holds a Master’s degree in Mass Communication from Guru Jambeshawar University and has been a journalist & producer for 10 years.

Preeti Chauhan
Believing in the notion of 'live and let live’, Preeti feels it's important to counter and check misinformation and prevent people from falling for propaganda, hoaxes, and fake information. She holds a Master’s degree in Mass Communication from Guru Jambeshawar University and has been a journalist & producer for 10 years.

Most Popular